शनिवार, 23 अप्रैल 2016

ओ मेरे सवर्ण मित्र, घड़ी दो घड़ी तू अछूत बनकर देख


हिंदी साहित्य लेखन को एक नया आयाम देने वाले वरिष्ठ साहित्यकार व साहित्य अकादमी ,म.प्र.के पूर्व निदेशक श्री देवेन्द्र दीपक लेखन के क्षेत्र में एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। श्री दीपक की पहचान एक साहित्यकार के साथ साथ शिक्षाविद् और संस्कृतिकर्मी के रूप में भी बनी हुई है। वैश्वीकरण के इस युग में मातृभाषा हिन्दी के प्रति सामान्य व्यक्ति के मन में प्रेम का पुर्नस्थापन करने के लिए देवेन्द्र जी ने अपना पूरा जीवन हिंदी को समर्पित कर दिया है। डॉ. देवेन्द्र दीपक जी केरल विश्वविद्यालय के मनोविज्ञान विभाग के अध्यक्ष भी रहे हैं। देश की वर्तमान समस्याओं तथा साहित्य के खोते अस्तित्व का कारण और निवारण जानने के लिए पत्रकार विश्व गौरव जी ने उनसे बात की। प्रस्तुत हैं श्री देवेन्द्र दीपक जी से बातचीत के प्रमुख अंश...

आपको साहित्य सृजन की प्रेरणा कहां से मिली?
मुझे साहित्य को पढ़ने की प्रेरणा अपने पूज्य पिता जी से मिली, मेरे पिता जी के पास चन्द्रकांता संतति के बहुत से खंड थे, जिनको मैं बचपन से पढ़ता आ रहा हूं। इसके साथ साथ विभाजन की विभीषिका मेरे जीवन में एक बड़ा परिवर्तन लाई। उस समय लगे कर्फ्यू दौरान जालंधर में रहने वाली मेरी बहन का उचित इलाज न मिलने के कारण देहान्त हो गया। इस प्रकार की घटनाओं को देखकर मैंने जन वेदना को कागज पर रेखांकित करना प्रारंभ किया।

आपने अन्तज उद्धार के लिए काफी लेखन किया है। हरिजनों को मुख्य धारा में लाने के विषय पर लेखन करने का विचार आपके मष्तिष्क में कैसे आया?
जब मैं छोटा था उस समय मेरे पिता एक हरिजन सहभोज में शामिल हुए, और उसके कारण हमारे परिवार का बहिष्कार हुआ। उस समय मेरे घर अस्पृश्य समाज का एक लड़का काम करता था जो कि अंगीठी जलाने से लेकर दूध लाने तक के सभी काम करता था। उससे पहले मेरे घर पर वहीदन नाम की एक मुस्लिम महिला दूध लेकर आती थी। कुल मिलाकर मेरे परिवार के माहौल और सामाजिक परिवेश में काफी अन्तर था। परिवार के माहौल ने ही मुझे अस्पृश्यता को समाप्त करने के लिए लेखन की प्रेरणा दी। एक मुस्लिम मित्र की शादी के भोज के दौरान वेज तथा नॉनवेज खाने वालों के बीच बहुत बड़ा विभेद देखने को मिला। उस दिन शाकाहारी होने की वजह से मुझे घोर उपेक्षा का अनुभव हुआ। उस दिन मेरे मन में विषय आया कि मैं शाकाहारी रहूं या मांसाहारी यह चुनाव मैंने स्वयं किया है लेकिन एक दलित तो यह चुनाव नहीं करता है कि वह अस्पृश्य रहेगा। उस दिन का अनुभव मेरे लिए एक शाम की बात थी लेकिन एक दलित को तो पूरा जीवन इसी उपेक्षा के साथ व्यतीत करना होता है। तब मैंने अपने सवर्ण मित्रों के लिए लिखा कि,
ओ मेरे सवर्ण मित्र, घड़ी दो घड़ी तू अछूत बनकर देख
जोकि होने और बनकर देखने में बुनियादी फर्क है,
लेकिन फिर भी मेरा तर्क है
ओ मेरे सवर्ण मित्र
घड़ी दो घड़ी तू अछूत बनकर देख

जब इस देश में आपातकाल लगाया गया था, उस दौरान देश के साहित्यकार राष्ट्रहित में लेखन कर रहे थे। क्या आज के लेखन को देखकर आपको ऐसा नहीं लगता कि आज का लेखन उद्देश्यहीन होकर मात्र मनोरंजन का साधन बन गया है?
हर काल में कुछ ऐसे साहित्यकार होते हैं जो समाज को दिशा निर्देशित करते हैं तो वहीं दूसरी ओर कुछ साहित्यकार ऐसे भी होते हैं जो रूढ़ियों पर चलते हैं। एक शब्द है कवि विवेक तथा दूसरा शब्द है काव्य विवेक, लोग इन दोनों शब्दों का अंतर नहीं समझते। कविता लिखने की कला को काव्य विवेक कहते हैं तथा कवि विवेक का तात्पर्य है समय की आवश्यकता के अनुरूप समाज को संबोधित करना। हमें समाज को लाभ पहुंचाने के लिए, समाज को दिशा निर्देशित करने के लिए क्या लिखना है ऐसा विवेक, कवि विवेक कहलाता है और यह विवेक जिस साहित्यकार में होगा वह साहित्यकार हमेशा समाज हित के लिए ही लेखन करेगा। उदाहरण के लिए रीति काल में भूषण एक ऐसे कवि थे जिनमें कवि विवेक था। उन्होंने अपनी लेखनी मात्र शिवाजी तथा छत्रसाल के लिए समर्पित की। वर्तमान समय में जितने भी कवि, कवि विवेक रखते हैं वे सकारात्मक सोच के साथ लेखन करते हैं।

आज के समय के ऐसे साहित्यकार जो कहते हैं कि हिन्दी को बढ़ाने के लिए हिन्दी को रोमन लिपि में प्रस्तुत करना चाहिए, उन साहित्यकारों के विषय में आप क्या कहेंगे?
अंग्रेजी भाषा में मात्र 5 स्वर हैं जिनमें से एक तो बाद में आया, जबकि हिंदी भाषा में 11 स्वर हैं, इसलिए स्पष्ट है कि रोमन लिपि के माध्यम से हिन्दी के शब्दों का उच्चारण संभव ही नहीं है। यह विषय भारत को अपने मूल्यों से काटने के लिए किए जाने वाले प्रयासों में एक सुनियोजित प्रयास है।

कुछ समय पूर्व हुए राजनीतिक परिवर्तन को देखते हुए क्या आपको लगता है कि क्या नई सरकार देश की मूलभूत समस्या 'भ्रष्टाचार' को समाप्त कर पाएगी?
भ्रष्टाचार जैसे विषय को पूर्ण रूप से समाप्त करने के लिए अन्तः एवं वाह्य दोनों प्रकार के अनुशासन की आवश्यकता है। भीतर का अनुशासन परिवार एवं शिक्षा से आता है, आज के बच्चों में हो रहे अंतः अनुशासन के पतन के लिए अभिभावक की दोहरी शैली जिम्मेदार हैं। घर पर उपस्थित होते हुए भी बच्चों के द्वारा यह संदेश दिलाना कि वह घर पर नहीं हैं, इसका एक सामान्य सा उदाहरण है। मेरे कार्यालय में एक मुसलमान चपरासी था उसने एक दिन मुझसे कहा कि, मेरी एक फाइल आपके पास है तथा दूसरी ऊपर है। उसकी इस छोटी सी परंतु विशिष्ट बात को सुनकर मैं समझ गया कि यह व्यक्ति कुछ गलत नहीं कर सकता और मैंने उसे कार्यालय की एक बड़ी जिम्मेदारी दे दी। उसने मुझे कभी शिकायत का मौका नहीं दिया। कहने का तात्पर्य यह है कि भ्रष्टाचार को तभी समाप्त किया जा सकता है जब हम स्वअनुशासित हों। राजनीतिक पार्टियां अथवा सरकारें अपने कार्यों तथा कार्यपद्धति के आधार पर आपको इच्छा शक्ति तो प्रदान कर सकती हैं परंतु भ्रष्टाचार को पूर्ण रूप से समाप्त नहीं कर सकतीं।

आप मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी के निदेशक रहे तो जाहिर है राजनेताओं से भी अच्छे संबंध रहे होंगे। राजनीति और साहित्य के संबंध को आप किस दृष्टि से देखते हैं?

राजनेताओं तथा साहित्यकारों के बीच का संबंध विवेकपूर्ण तथा मर्यादित होना चाहिए। यदि कोई राजनेता हमसे यह अपेक्षा करता है कि हम उसके लिए चालीसा लिखेंगे तो उसकी यह अपेक्षा पूर्णतः आधारहीन है परंतु यदि कोई सकारात्मक कार्य कर रहा है तो उसके कार्य को सारस्वत समर्थन देना हमारा सामाजिक दायित्व है क्यों कि हम जीवन की सार्थकता एवं शुद्धता के लिए कार्य कर रहे हैं। मेरे लिए मोदी महत्वपूर्ण नहीं लेकिन उनके द्वारा नई पीढ़ी से किया जाने वाला संवाद विशिष्ट है। मोदी के अतरिक्त स्व. डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम एक मात्र ऐसे व्यक्तित्व थे जिन्होंने नई पीढ़ी से सीधा संवाद करते हुए जीवन जीने का मार्ग अपनी जीवन शैली के माध्यम से प्रस्तुत किया। यह देश का दुर्भाग्य है कि यहां सकारात्मक विषयों पर बात ही नहीं होती। भ्रष्टाचार करने वालों के नाम की चर्चाएं तो होती हैं लेकिन उस तूफान स्वयं में स्थायित्व रखने वाले गुलजारी लाल नंदा के नाम की चर्चा कोई नहीं करता।

कुछ समय पूर्व लखनऊ के एक कार्यक्रम में वयोवृद्ध साहित्यकार डॉ. रंगनाथ मिश्रा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के चरण स्पर्श करने लगे। क्या साहित्य का राजनीति के चरणों में झुकना उचित मानते हैं?
साहित्य तथा राजनीति दोनों का अपना एक विशिष्ट स्थान है। ऐसा नहीं होना चाहिए था, लेकिन इसकी वजह से यह कहना कि साहित्य, राजनीति के चरणों में झुक गया कहीं न कहीं गलत होगा। तीन शब्द होते हैं कुछ बिगड़ना, बहुत कुछ बिगड़ना तथा सब कुछ बिगड़ना। मैं मानता हूं कि बहुत कुछ बिगड़ चुका है लेकिन सब कुछ नहीं बिगड़ा है। मुझे  भी साहित्य अकादमी का 2 लाख रुपए का साहित्य भूषण का पुरस्कार मिला और उस समय मैंने महसूस किया कि अखिलेश यादव जी साहित्य का बहुत सम्मान करते हैं। एक व्यक्ति ने अगर इस प्रकार से कुछ किया है तो साहित्यकारों की पूरी जमात को कटघरे में खड़ा कर देना उचित नहीं।

गुजरात में हाल ही में आरक्षण की मांग को लेकर एक आंदोलन हुआ, आरक्षण के विषय में आपका मत क्या है?
मुझे ध्यान है विद्या भारती द्वारा उज्जैन में आयोजित बैठक में एक गीत लाया गया था जिसके शब्द थे 'जो पिछड़े हैं', इन शब्दों में संशोधन कराते हुए मैंने 'पिछड़ गए जो' कराया। निश्चित ही जो आज हमसे दूर हैं उनको मुख्य धारा में लाने के लिए आरक्षण तो देना ही होगा लेकिन मैं जातिगत आरक्षण का समर्थन नहीं करता। जिनको आवश्यकता है उन्हें सुविधाएं मिलना चाहिए। जातिगत आरक्षण जब तक रहेगा तब तक देश से जातिवाद समाप्त नहीं हो सकता।

हाल ही में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन को क्या आप पूर्ण रूप से सफल मानते हैं?
मैं अब तक 6 विश्व हिंदी सम्मेलनों में जा चुका हूं। हिन्दी विश्व भाषा मात्र कहानियां लिखने से नहीं बन सकती। हिंदी को विश्वभाषा बनाने के लिए आवश्यक है कि हिंदी सामान्य वर्ग तक पहुंचे, प्रत्येक विषय से संबन्धित साहित्य हिन्दी में उपलब्ध हो। संस्कृत का महत्व मात्र कालिदास के साहित्य की वजह से नहीं है अपितु संस्कृत में उपलब्ध आयुर्वेद, ज्योतिष विद्या इत्यादि के कारण है। इस नाते आवश्यक है कि हिंदी में प्रशासनिक व्यवस्थाएं चलें, प्रबंधन, तकनीकी इत्यादि का साहित्य अंग्रेजी भाषा में उपलब्ध हो। इस सम्मेलन में आईटी का विषय आने पर मंच पर आईटी मिनिस्टर को बैठाया गया। पहले यह बात पसंद नहीं आई लेकिन बाद में ऐसा करने के पीछे की दूरदृष्टि समझ में आई कि यदि आईटी में हिंदी को लाना है तो सुझाव देने वाले के साथ साथ क्रियान्वयन करने वाले व्यक्ति का होना भी आवश्यक है। अब तक होता था कि चार बुद्धिजीवी बैठकर चर्चा कर लेते थे और मंत्री को किसी भी प्रकार का फर्क ही नहीं पड़ता था लेकिन अब ऐसा नहीं होगा क्यों कि जिसे नीतियों को लागू करना है उसी के सामने सारी चर्चा रही है। इसी के कारण हाल ही में मध्य प्रदेश में दो परिणाम तत्काल दिखे, एक तो मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह यादव ने घोषणा की कि हाईकोर्ट के फैसले के हिंदी अनुवाद को पूर्ण प्रमाणित माना जाएगा तथा दूसरा यह कि अब इंजीनियरिंग की परीक्षा हिंदी में भी हो सकेगी। इन सभी विषयों के आधार पर हाल ही में हुआ हिंदी सम्मेलन सफल माना जा सकता है।

वर्तमान समय के हिंदी साहित्यकारों के लिए आप क्या संदेश देना चाहेंगे?


मैं उनसे बस इतना ही कहना चाहूंगा कि ऐसा लेखन करें जो पाठक को समझ में आए। लेखन सरल एवं स्पष्ट करें। साहित्य को संवाद एवं संवाद को साहित्य की भाषा बनाने की आवश्यकता है। हम जब लिखें तो हमारा पाठक हमारे साथ चलता हुआ दिखना चाहिए, वह पीछे लंगड़ाता हुआ न चले। इसके साथ साथ हमें लेखन के समय अपनी कलम से पूछना चाहिए कि जो हम लिख रहे हैं उससे कुआं खुदेगा या खाईं। लेखन संवेदना के साथ होना चाहिए। मैंने दलित साहित्य पर काफी काम किया है और मैं नहीं मानता हूं कि दलित साहित्य सिर्फ दलित ही लिख सकता है। मैं हमेशा कहता हूं कि मेरी जाति मत देखिए, मेरी कलम की जाति देखिए। नई पीढ़ी में बहुत अधिक क्षमता है, बस आवश्यकता इस बात की है कि उस क्षमता का प्रयोग सही दिशा में किया जाए। नई पीढ़ी की क्षमता और हमारी पीढ़ी के अनुभव के समन्वय से हुआ लेखन समाज को एक नई दिशा दे सकता है।